महल खड़ा करने की इच्छा है शब्दों का
जिसमें सब रह सके, रम सके लेकिन साँचा
ईंट बनाने का मिला नहीं है, शब्दों का
समय लग गया, केवल काम चलाऊ ढाँचा
किस तरह तैयार किया है। सबकी बोली -
ठोली, लाग-लपेट, टेक, भाषा, मुहावरा,
भाव, आचरण, इंगित, विशेषता फिर भोली,
भूली इच्छाएँ, इतिहास विश्व का, बिखरा
हुआ रूप-सौंदर्य भूमिका, स्वर की धारा
विविध तरंग भंग भरती, लहराती, गाती,
चिल्लाती, इठलाती, फिर मनुष्य आवारा
गृही, असभ्य, सभ्य, शहराती या देहाती -
सबके लिए निमंत्रण है अपना जन जानें
और पधारें इसको अपना ही घर मानें। (त्रिलोचन)
एक बहुत बड़े कविता की पाठशाला निर्मित किया था त्रिलोचन ने और उनकी कविताओं की परिधि भी बहुत बड़ी थी, बल्कि हम कहेंगे है। तुलसी, कबीर, गालिब, निराला, माओत्से-तुङ्ग और नागार्जुन तो उसमें हैं हीं; उसमें भोरई केवट, नगई महरा, चंपा, चित्रा, परमानंद आदि सीधे-सीधे लोक से लिए गए पात्र भी हैं। शिवप्रसाद सिंह ने लिखा है 'शास्त्री जी को लोकजीवन से उत्पन्न स्नेहगंधी मानस मिला है। वे चिल्ले जाड़े में कुहरे लिपटे गँवई वातावरण में 'अतवरिया' को देख कर लाचारी की मार का राग अलापें या 'भिखरिया' की की अकिंचनता पर तरस खाएँ, लगेगा कि यह सारा कुछ आत्मवेदना का ही इजहार है।''
त्रिलोचन की पहली काव्यकृति 'धरती' सन 1945 में प्रकाशित हुई जबकि 'अमोला' सन 1990 में प्रकाशित अंतिम काव्यकृति है। 'ताप के ताए हुए दिन' (सन 1980) और 'उस जनपद का कवि हूँ (सन 1981) उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय कृतियाँ रहीं। 'ताप के ताए हुए दिन' के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। देशकाल (सन 1986) कथासंग्रह और 'काव्य और अर्थबोध' (सन 1985) आलोचना पुस्तक है। अपनी कविता के बारे में वे अपनी कविता के माध्यम से अपनी काव्य-दृष्टि का भी उद्धाटन करते हैं -
जीवन जिस धरती का है। कविता भी उस की
सूक्ष्म सत्य है, तप है, नहीं चाय की चुस्की।
कविता उनके लिए जीवन, धरती, अभाव, दुख, करुणा, गरीबी से अलग नहीं थी। उन्हें गालिब बहुत प्रिय थे, बजाप्ता गालिब पर उन्होंने सॉनेट लिखा और वे प्रायः उनका एक प्रसिद्ध शेर सुनाया करते थे -
कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
रंग लावेगी हमारी फाका-मस्ती एक दिन।
त्रिलोचन को पूरा भरोसा था कि उनकी फाका-मस्ती एक दिन रंग लाएगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि अँग्रेजी भाषा के सॉनेट छंद का भारतीयकरण कर हिंदी साहित्य जगत में त्रिलोचन शास्त्री के नाम से सॉनेट-सम्राट के रूप में प्रसिद्ध हुए। निश्चित रूप से यह उनकी मेधा, ऊर्जा तथा दृढ़प्रतिज्ञ, लगनशील, कर्मठ व्यक्तित्व का प्रतिफलन था। त्रिलोचन में अपने प्रति तथा अपने कवि-रूप के प्रति अगाध और दृढ़ विश्वास था। उन्होंने आजीवन काव्य रचना को ही एकमात्र अपना मूल धर्म माना 'आसमुद्र-पर्वत आकृमि-मानवों की धरा / गान शेष होकर मेरे मन में गूँजी है / गान, गान ही मेरे जीवन की पूँजी है।' ऐसी ही पंक्तियाँ त्रिलोचन के कवि पाठशाला से निकलती है और निश्चित ही यह जीवन के प्रति बेहद आस्थावान कवि ही कह सकता है।
सहजता और सादगी उन्हें विरासत में मिली थी। उन्होंने स्पष्ट ही सॉनेट में उद्धृत किया है - मैं विलास का / प्रेमी कभी नहीं था, जब देखा तब केवल / जीवन देखा, धूल और मिट्टी से आया / था, रक्त के कणों में यह संबंध समाया / था कुछ ऐसा कि नदी की भी कल-कल छल-छल / मैं समाज में सुनता था, जिसका था खाना / बिना झिझक बेलाग मुझे उसका था गाना। धरती के रस में डूबे कवि त्रिलोचन अपनी हर रचना में धरती की चेतना को ही प्रसारित करते हैं।
गाँव से कस्बा और शहर तक आए त्रिलोचन की कविताओं में गाँव, उसका परिवेश और जीवन बसा रहा। इसका सबसे बड़ा प्रमाण 'मैं उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा दूखा है, नंगा है, अनजान है, कला-नहीं जानता कैसी होती है क्या है, वह नहीं मानता' है। इस कविता में कवि ने ग्रामीण जीवन की सभी विसंगतियों को समेटने का प्रयास किया है। इतना ही नहीं दुख में सदियों से ईश्वर को सहारा और भरोसा मानते हुए परंपरा को ढोते चले आ रहे समुदाय का चित्र खींचा है। कविता की अंतिम पंक्तियों में वह इसे स्पष्ट कर जाते हैं। उन्होंने लिखा है, 'अब समाज में वे विचार रह गए नहीं हैं जिनको ढोता चला जा रहा है वह, अपने आँसू बोता विफल मनोरथ होने पर अथवा अकाज में। धरम कमाता है वह तुलसीकृत रामायण सुन-पढ़कर, जपता है नारायण-नारायण।'
किंतु सर्वाधिक प्रसिद्धि उन्हें हिंदी साहित्य जगत में अपने सॉनेटों के कारण मिली है। 'दिगंत' उनके सॉनेटों का पहला संग्रह है। वास्तव में देखा जाए तो सॉनेट के क्षेत्र में त्रिलोचन ने कई प्रयोग किए हैं और अपने प्रयोगों द्वारा अपनी सिद्धहस्त कलम का लोहा भी हिंदी जगत में मनवाया है। अपने 'दिगंत' काव्य संग्रह के प्रथम सॉनेट में उन्होंने सॉनेट की प्रकृति और विशेषताओं को समझाने के साथ सॉनेट के प्रति अपने रुझान को व्यक्त करने की भी कोशिश की है : इधर त्रिलोचन सॉनेट के ही पथ पर दौड़ा; / सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट सॉनेट - क्या कर डाला / यह उसने भी अजब तमाशा। मन की माला / गले डाल ली। इस सॉनेट का रस्ता चौड़ा / अधिक नहीं है। कसे कसाये भाव अनूठे / ऐसे आएँ जैसे किला आगरा में जो / नग है, दिखलाता है पूरे ताजमहल को / गेय रहे एकान्विती हो।'
अकारण नहीं कि त्रिलोचन आजीवन सॉनेट को निरंतर माँजते रहे अपने निज नूतन प्रयोगों के साथ। कहना चाहिए कि इस काव्य रूप के कठोर अनुशासन को इंगित करते हुए भी उन्होंने निरंतर इसको साधने की भरपूर कोशिश की है और सफल भी हुए हैं। यों तो 'दिगंत' के पहले उनके 'धरती' और 'गुलाब और बुलबुल' काव्य संग्रहों का प्रकाशन हो चुका था। 'धरती' काव्य संग्रह से ही उनका धरती से जुड़ाव साबित हो चुका था। जिसमें उन्होंने धरती से जुड़े कई चित्र उकेर कर आम जन के चरित्रों पर भी अपनी छाप छोड़ी थी। 'धरती' काव्य संग्रह की तीन कविताएँ 'चंपा काले अक्षर नहीं चीन्हती', 'आज मैं अकेला', 'धूप सुंदर धूप में जगरूप सुंदर' काफी चर्चित हुई है। जिनमें अनपढ़ बच्ची चंपा की तो बात ही निराली है, जो काले अक्षर नहीं चीन्हती, किंतु शादी करना नहीं चाहती अगर शादी हो भी जाए तो अपने पति के संग-साथ रहना चाहती है, कलकत्ता उन दोनों के बीच में यदि आने की कोशिश करे, तो कलकत्ते पर वज्र गिराना चाहती है। इस कालजयी कविता की पंक्तियाँ हैं - "चंपा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती / मैं तो ब्याह कभी न करूँगी / और कहीं जो ब्याह हो गया / तो मैं अपने बलम को संग-साथ रखूँगी / कलकत्ता मैं कभी न / जाने दूँगी / कलकत्ते पर वज्र गिरे।'' इसी संग्रह की 'आज मैं अकेला हूँ' - कविता भी काफी महत्वपूर्ण कविता है। जिसमें कवि का अवसाद करुणा का सागर बनकर फूट पड़ा है, जो मन के भीतर तक बेध देता है। इन पंक्तियों में इसकी मार्मिकता देखते बनती है - 'आज मैं अकेला हूँ / अकेले रहा नहीं जाता/ ...जीवन मिला है यह / रतन मिला है यह / धूल में / कि फूल में / मिला है तो / मिला है यह / मोल तोल इसका / अकेले कहा नहीं जाता / सुख आए दुख आए / दिन आए रात आए /.../ सुख-दुख एक भी अकेले सहा नहीं जाता /.../ जब जिस छन में / हारा, हारा, हारा/ मैं ने तुम्हें पुकारा।'
इसी संग्रह की 'धूप सुंदर धूप में जगरूप सुंदर' कविता की भी काफी प्रशंसा हुई थी इसमें प्रकृति के एक दृश्य का ऐसा मनोहारी चित्रण हुआ है जिसका टटकापन व ताजगी लक्ष्य किया जा सकता है - जिसमें ठीक वैसी ही ताजगी है, जैसे भीगी धरती की सोंधी खुशबू से मन को शीतलता और ताजगी मिलती है - सघन पीली ऊर्मियों में बोर / हरियाली सलोनी / झूमती सरसों / प्रकंपित वात से / अपरूप सुंदर / धूप में जगरूप सुंदर।
नई कविता शहर और देहात के गरीबों से दूर रही, लेकिन त्रिलोचन इससे दूर नहीं रहे। उनकी कविताओं के मूल में यही वर्ग रचा बसा है। उनकी कविताओं की इस खूबी की पहचान करते हुए रामविलास शर्मा ने लिखा है, 'जैसे क्रांति और प्रतिक्रांति, वैसे ही नई कविता और त्रिलोचन की प्रति कविता। यदि त्रिलोचन की कविता हिंदी भाषा और हिंदी जाति की संघर्षशील चेतना की जड़ों को सींचती है तो वह सही अर्थ में क्रांतिकारी है, तब प्रतिक्रांति की हैसियत है नई कविता की। हिंदी जाति में पूँजीपति और जमींदार हैं, किसान मजदूर हैं और मध्य वर्ग के लोग हैं। संघर्षशील चेतना पूँजीपतियों और जमींदारों की चेतना नहीं है, यह किसानों, मजदूरों और मध्य वर्ग के प्रबुद्ध अंश की चेतना है। नई कविता शहर और देहात के गरीबों से जितना ही दूर है, त्रिलोचन की कविता उनके उतना ही पास है। त्रिलोचन जिस खास अर्थ में आधुनिक हैं, वह गरीबों से उनकी कविता का नाता है। नई कविता ने अपने लिए जो परिधि बनाई, उसने जनता के दुख-दर्द को उससे बाहर रखा। त्रिलोचन की कविता इस परिधि को तोड़ती है, इस परिधि की रक्षा के लिए जो अवधारणाएँ प्रचारित की गई हैं उन्हें यह कविता थोड़ा छिन्न-भिन्न करेगी ही।'
बेशक, त्रिलोचन की कविताओं पर उनकी निजी जिंदगी की छाप रही। बचपन से लेकर जीवन के उत्तर भाग तक वह अभावों में घिरे रहे। त्रिलोचन के जीवन को निराला का जीवन-संघर्ष और प्रेमचंद के आर्थिक अभाव का समन्वय कहा जा सकता है। बचपन से लेकर जीवन के उत्तर भाग तक उनके नंगे पैरों का सफर त्रासदी से भरा दिखता है। सबसे बड़ी बात यही दिखती है कि इस सफर में भी वे गाँव की मिट्टी की सोंधी महक अपनी अंतिम रचनाओं तक नहीं भूल सके।
त्रिलोचन की कविताओं में विविधता है, उसमें व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं विश्व के विविध संदर्भ हैं। उनसे जुड़ी विविध समस्याओं की अभिव्यक्ति है किंतु सहजता हर जगह उनकी कविताओं में बनी हुई है। व्यक्तिगत रोमान से लेकर समाज, राष्ट्र और विश्व की समस्याओं तक की अभिव्यक्ति सॉनेट्स में की गई है। आत्मालोचन और आलोचन दोनों का स्वर इनमें सुनाई पड़ता है। हास्य व्यंग्य का समावेश भी इनमें है। उन्होंने स्पष्ट कहा है - धन की उतनी नहीं मुझे जन की परवा है/जितनी। जो मुझसे खुलकर मन से मिलता है / मैं उसका वशवर्ती हूँ। इसी से खिलता है / मेरे प्राणों का शतदल। (अनकहनी भी कुछ कहनी है, पृ.17)
अपने सॉनेटों में उन्होंने आत्मव्यंग्य किया है। दीन-हीन दशा की अंतिम स्थिति में वह भीख माँगते हुए दिखते हैं। लेकिन यह उनकी जिंदगी का सच नहीं था। अपना नाम लेकर उन्होंने भीख माँगने के लिए मजबूर लोगों के प्रति संवेदना व्यक्तय की है। हिंदी साहित्य में त्रिलोचन ने सबसे ज्यादा सॉनेट लिखे हैं। उनके सॉनेट की संख्या की दृष्टि से ही नहीं भाव और शिल्प की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। कविता की प्रयोगशीलता सॉनेट में निखरी है। त्रिलोचन को सॉनेट का पर्याय कहा गया है। सॉनेट का आरंभ 'दिगंत' से होता है। आरंभ ही इतना भव्य है कि इसे सॉनेट का आईना कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं। त्रिलोचन ने पहली बार अपनी गजलों में व्यंग्य को स्थान दिया था, लेकिन दिगंत में उसके तेवर कहीं ज्यादा पैने हैं। वास्तव में कवि ने काव्य रूप के तौर पर सॉनेट का फार्म चुना है लेकिन 'धरती' और 'सबका अपना आकाश' के गीतों, अमोला के बरवै, गुलाब और बुलबुल की गजलों और लंबी कविताओं - मुक्त छंद कविताओं के महत्व को कम करके नहीं आँका जा सकता। 'धरती' उनकी पहली रचना है लेकिन यह प्रौढ़ है। इसमें कहीं-कहीं छायावाद का प्रभाव झलकता है। लेकिन गीतों में प्रगतिशील स्वर ही मुख्य रूप से उभरा है। प्रकाशन काल के आधार पर 'धरती', 'गुलाब और बुलबुल' और 'दिगंत' में छायावादी प्रभाव, प्रयोगशीलता, उत्साह और आवेग है। रचनाओं में उनका उत्साह जन समाज को दिशा और बल देने वाला है। वे खुद भी जीवन से परास्त या जीवन से हार मानने वालों में से नहीं थे। इसीलिए तो उन्होंने आजीवन अपनी उपेक्षाओं, दुत्कारों तथा प्रवंचनाओं से मुठभेड़ करते हुए आम खुशफहम आदमी की तरह जीना सिखलाया है - 'मित्रों, मैंने साथ तुम्हारा जब छोड़ा था / तब मैं हारा थका नहीं / था, लेकिन मेरा / तन भूखा था मन भूखा था। तुमने टेरा / घोड़ा था / तेज तुम्हारा, तुम्हें ले उड़ा / मैं पैदल था' - (दिगंत)
दुखों के अंबार से विचलित हुए बिना हँसकर उसे झेल जाना उनकी फितरत है। अपने बारे में वे जन-गोष्ठियों में हँस-हँस कर सुनाते थे। रिक्शा चलाते थे, पाँच हजार दंड बैठकें एक साँस में लगाई। गाँव से पैदल वे दिल्ली की यात्रा किए थे, यही नहीं पाँच सेर भिगोया चना खाकर पचा लेते थे, अनेक सिद्धियाँ जानते थे, श्मशान में घंटों बैठे रहते थे। उनकी प्रतिभा को तो दाद देना ही चाहिए उन्हें निराला का काव्य जुबानी याद था, आदिकाल से अपने समय की कविता बेझिझक बोल सकते थे। उनसे कहीं भी किसी पर बात की जा सकती थी, ज्ञान-चर्चा के लिए वे हमेशा तत्पर रहते थे। पांडित्य और सादगी का अनूठा सामंजस्य था उनमें। उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी। तुलसी, कबीर और गालिब उनके आदर्श थे। 'तुलसी बाबा, भाषा मैंने तुमसे सीखी / मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो।' (दिगंत) उन्होंने अपनी कविताओं में तुलसी की भाषा, कबीर की विद्रोही वृत्ति तथा गालिब की आत्मीयता को एक साथ ही साधा था। उनका संकल्प था - 'सिफारिश से, सेवा से गला सत्य का कभी न घोटूँगा, मेवा से / बरंब्रूहि न कहूँगा और न चुप रहने का / ऐसे थे त्रिलोचन। इतने परमज्ञानी त्रिलोचन आजीवन सादगी के साथ रहे, किसी चीज का लालच नहीं था, इसीलिए धौंस भी किसी का नहीं सहते थे। कविता सुनाना उन्हें प्रिय लगता था। किंतु एक बार 'ना' कर दिया, तो वे किसी के आग्रह पर भी कविता सुनाने नहीं उठते थे। अगली-पिछली-हर पीढ़ी से उनका संवाद था, बल्कि कहना चाहिए युवा पीढ़ी में वे ज्यादा लोकप्रिय थे। युवा पीढ़ी द्वारा उनको जीते जी महाकवि का सम्मान मिलना इसी बात का प्रमाण है। त्रिलोचन कहना चाहिए कि साहित्य की महान परंपरा को आत्मसात किए हुए थे, वे साहित्य की चलती-फिरती पाठशाला थे। कहीं भी, कुछ भी उनसे साहित्य के संबंध में सीखा जा सकता था। भाषा और उसके प्रयोगों को लेकर तो उनसे हर वक्त ही सीखा जा सकता था। वे घुमंतू थे, किंतु बनारस से उन्हें बेहद लगाव था, बनारस की गली-गली और चप्पे-चप्पे के बारे में उनकी अद्भुत जानकारी थी। कितनी सहज बानी में उन्होंने लिखा है -
काशी मुझे गाँव सी लगती है, शहराती / हवा यहाँ कम से कम है। सब आस-पास से / घुले मिले रहते हैं। अपना रंग दिखाती / प्रकृति मनुष्यों में है, धरती से अकास से / सहज मुक्त संबंध बना है। चोरी डाका / यहाँ न हो यह बात नहीं है। दुर्गुण सारे / कम बेशी हैं। .../ जो हारे हैं / वे जनमी मस्त मिलेंगे। ऐसी मस्ती / और कहीं तो नहीं मिलेगी। चना चबेनी / और गंगाजल के मस्ताने हैं। यह हस्ती और कहाँ है। झंखे तीरथराज त्रिवेणी / रोज-रोज ताजा है, कभी नहीं बासी, आन बान में, कबीरा तुलसी की यह काशी।
आजीवन वे जीवन की कठिनाई को झेले हैं। वैसे कवि-कर्म की यात्रा कभी सहज होती भी नहीं है। यह वे बखूबी जानते भी थे। सच्चा सर्जक जीवन की पीड़ा से दग्ध होगा ही। उन्होंने अपने कठिन कवि कर्म के संदर्भ में लिखा है जो उनके कविता पाठशाला की पहली शर्त भी थी -
'हिंदी की कविता उनकी कविता है जिनकी
साँसों को आराम नहीं था और जिन्होंने
सारा जीवन लगा दिया कल्मष को धोने
में समाज के नहीं काम करने में घिन की।'
बावजूद अभावमय जीवन उन्हें कवि-कर्म से विरत नहीं कर पाया अर्थात कभी परास्त नहीं कर पाया। कवि के रचनाकर्म को उन्होंने गंभीरता से लिया है हमेशा से ही, इसीलिए जिन्होंने कविता के नाम पर अवसरवादी प्रवृत्ति अपनाने की कोशिश की उसे त्रिलोचन नहीं छोड़ते, उस पर सीधे वार करते हैं - 'कौर छीन कर औरों का जो खा जाते हैं, / वे भी कवि साहित्यकार की छाप लगाए / पथ पर घूम रहे। ऐसे लोग न आए / थे पहले इस भू-पर, झलक दिखा जाते हैं / अपनी-अपनी करनी को, उलझा जाते हैं / जीवन के सुलझे तारों को। पर्त बनाए / शब्द रचा करते हैं, - वही अर्थ उतराए / जिसकी आकांक्षा हो, चाल दिखा जाते हैं। - (फूल नाम है एक)
1950 के आस-पास हिंदी साहित्य के क्षेत्र में प्रगतिशील कविता तथा नई कविता के बीच एक वाद-विवाद की स्थिति उत्पन्न हो गई थी जिससे एक अराजकता की स्थिति पैदा होती दिखाई दी थी, जिसने कई ऐसे अवसरवादी प्रवृत्ति वाले साहित्यकार वर्ग को उत्पन्न कर दिया था जिसके प्रति त्रिलोचन सख्ती से पेश आए। उन्होंने अनुभव की प्रामाणिकता के नाम पर दुख, हताशा, कुंठा आदि को व्यक्त करने वाले नई कविता के कवियों को सामाजिक-दायित्व बोध से विच्छिन्न करने के कारण भी आड़े हाथों में लिया तथा उनपर पूरा आघात किया -
देशी और विदेशी लादी ढोते-ढोते
जिनकी पीठ कट गई थी वे गधे शान से
घोड़े कहलाते फिरते हैं, आन-बान से।
साम्यवाद के पथ में लीद किया करते हैं,
मानवता का पोस्टर देखा, लगे रेंकने
क्या प्रतीक और तथ्य क्या, दूर-दूर हैं,
समझ बड़ी भोली है, व्यस्त जिया करते हैं।
संस्कृति की हरियाली देखी, लगे छेंकने
अपनी दुलत्तियों के मद में सदा चूर हैं। - (फूल नाम है एक)
यहाँ प्रगतिवाद के पक्षधर त्रिलोचन ने नई भावधारा के रचनाकारों के भाव, सोच और शिल्प को लेकर कटाक्ष किया है।
इसलिए काव्य रूपों की दृष्टि से त्रिलोचन में विविधता है। उन्होंने गीत, गजल, चतुष्पदियों, कुंडलियों, बरवै, सॉनेट के अलावा मुक्त छंद की कविताएँ, छोटी और लंबी कविताएँ तथा गद्य कविताएँ आदि लिखी हैं। भाषा उनकी सधी हुई है। कविताओं में कई जगहों पर संवाद शैली का अधिकतर प्रयोग है। कहीं-कहीं स्वगत संलाप भी हैं। भाषा के मामले में उनकी प्रतिभा अनूठी है - जन जीवन के विविध संदर्भों को उकरने के लिए उन्होंने जनजीवन के निकट की भाषा का प्रयोग किया है। त्रिलोचन ने लिखा भी है - "ध्वनि ग्राहक हूँ मैं समाज में उठने वाली / ध्वनियाँ पकड़ लिया करता हूँ इस पर कोई / अगर चिढ़े तो उसकी बुद्धि कहीं है खोई / कहना यही पड़ेगा /... लड़ता हुआ समाज नई आशा अभिलाषा / नए चित्र के साथ नई देता हूँ भाषा।''
यही ठीक है कि त्रिलोचन की भाषा में सीधापन है, उसमें सरलता है, किंतु समय-समय पर उनकी भाषा तीक्ष्ण धारदार व पैनी भी हुई है। सबसे बड़ी बात यह है कि त्रिलोचन भाषा के उस मर्म को जानते हैं जिसे बहुत बड़े-बड़े भाषाविज्ञानी नहीं जानते और जिसे उन्होंने एक सूत्र में रखा है 'ध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है।'